चराग़ जल उठे

वो सेमीनार का तीसरा दिन था। तीन दिन कैसे गुज़र गये पता ही नहीं चला। उस शहर का यह पहला दौरा था, इसलिए सेमीनार के अलावा लोगों से मिलना और घूमना-फिरना भी होता रहा। दोनों दिन हर शाम साइड सीन में शहर के लगभग सभी स्मारक और ऐतिहासिक इमारतें घूम चुके थे। रात ग्यारह बजे अपने शहर वापसी के लिए ट्रेन पकड़नी थी। उससे पहले प्रोफेसर एहसान अली साहब के घर डीनर करना था। उनका घर स्टेशन से बिल्कुल पास ही था। इसलिए कोई जल्दी नहीं थी। खाने के बाद कुछ देर सुस्ताने के लिए कमरे में ही एक दीवान पर पसर गया। करवट ली तो देखा कि दीवार पर एक पोर्ट्रेट टंगा है। एक बहुत ही ख़ूबसूरत निसवानी चेहरा, बड़ी-बड़ी आँखें जैसे मेरी तरफ ही देख रही हों। सिर ओर गले को दुपट्टे से ढके हुए चेहरे में ऐसा क्या था पता नहीं, मैं अपलक देखता रह गया। दीवान से उठकर मैं तस्वीर के क़रीब पहुँचा। ऐसा लगा कि मैंने इस चेहरे को पहले भी कभी देखा है। याद आया औरंगाबाद की कान्फ्रेंस में सारा से मुलाक़ात हुई थी। नाश्ते पर, लंच पर और शाम में पानी की चक्की के पास गुज़ारे हुए कुछ वक़्त वह मिसेज़ खान के हमराह हमारे साथ थीं। बहुत याद करने लायक़ कुछ था नहीं, लेकिन इतना ज़रूर याद आया कि कान्फ्रेंस के दौरान जब भी सारा से आँखें चार हुई तो मैंने पाया कि उसकी आँखों में एक खास तरह की कशिश है। बस इतनी ही मुलाक़ात, उसके बाद सारा को न कभी देखा और न उसके बारे में कभी कुछ सुना।

पुरानी यादों के साथ मैं उस तस्वीर को ग़ौर से देखे जा रहा था कि किसी के नज़दीक आने की आहट से चौंक गया। पलटकर देखा तो..

“सारा…!”

“जी नहीं, ज़ारा।”

“क्या..?” अभी मैं कुछ कहता इससे पहले ही मिसेज़ एहसान चाय की ट्रे लेकर सामने मौजूद थीं। कहने लगीं.. “बातें बाद में होंगी पहले चाय लीजिए।”

“..लेकिन।”

“लेकिन-वेकिन सब चाय पीने के बाद।”

चाय अभी ख़त्म भी नहीं हुई थी कि ज़ारा ने अचानक कहा, “प्लीज़, आज आप रुक जाइए।”

“जी!…”  मैं ऐसे लम्हात से शायद ही कभी रू ब रू हुआ था। पाँच मिनट के दौरान यह दूसरा लम्हा था, जब मैं हैरत में डूब सा गया था। कुछ सोच ही नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है। मैं कुछ कहता इससे पहले ही प्रो. एहसान अली कमरे में दाखिल हुए और सूचना के अंदाज़ में कहने लगे, आज आपकी ट्रेन एक घंटा लेट है। इसलिए बेहतर है कि आराम कीजिए।

ज़ारा ने कुछ देर बाद मेरी हालत को समझते हुए कहा, “देखिए परेशान न हों, दर असल हम सब आपको सारा की वजह से ही जानते हैं। वह आपकी कहानियों कि इतनी दीवानी थी कि आपकी सारी किताबें और जिन-जिन पत्रिकाओं में आपकी कहानियाँ छपी हैं, सब जमा करती थीं। पलटकर देखिए, उस अलमारी की तरफ़, वहाँ हर चीज़ मौजूद है। यह सारा का ही कमरा है। इस कमरे में सारा कम और आपकी यादें ज्यादा बसती हैं। उसने आपसे कई बार मुलाक़ात करने की कोशिश की, लेकिन आप नहीं मिल सके। औरंगाबाद में जब मौक़ा था, उस वक़्त वह कैन्सर के आख़री स्टेज से गुज़र रही थी, इसलिए उसकी हिम्मत नहीं हुई और क़िस्मत देखिए कि वह आपका इंतेज़ार नहीं कर सकी और आज जब आप उसके कमरे में बैठे हैं तो उसे इस दुनिया को अलविदा कह चुके एक साल हो गया है।…” कहते-कहते उसका गला रुंध गया।

मैं उस परिवार के बारे में बिल्कुल नहीं जानता था। हाँ प्रो. एहसान अली साहब से एक बार यूनिवर्सिटी में मुलाक़ात ज़रूर हुई थी, जब वो किसी कान्फ्रेंस में हिस्सा लेने के लिए हैदराबाद आये थे। सारा, ज़ारा से दो साल छोटी थी, लेकिन दोनों बिल्कुल जुड़वा बहनों की तरह लगती थीं। बहुत ज्यादा फर्क़ नहीं था, ज़ारा और सारा में। सारा की कहानी सुनने के बाद मैं वहाँ से निकलने की हिम्मत नहीं कर सका। तय हुआ कि दूसरे दिन जाऊँगा। कमरे से उठकर पहले हाल में और फिर घर के पीछे बने एक छोटे से बागीचे में चला आया। सोच रहा था कि रात कैसे गुज़रेगी। पीछे-पीछे ज़ारा और मिसेज़ एहसान हाथों में प्लास्टिक की कुर्सियाँ पकड़े चले आये। दिन तो था नहीं कि चढ़ते उतरते सूरज की रोशनी से वक़्त का पता चल जाए। यूँ भी ऐसे हालात में रात आसानी से नहीं कटती। लाख रोशनी के बावजूद अंधेरा अपना एहसास दिलाता रहता है।

लेकिन उस रात का अँधेरा बिल्कुल अलग था। रोशनी की कई किरने अंधेरे को चीरती हुई धुंधले किरदारों की तस्वीरों में रंग भर रही थीं। मिसेज़ एहसान कुछ देर बैठकर चली गयीं। अब वक़्त था ज़ारा की कहानी का। रात आहिस्ता आहिस्ता आगे की ओर सरक रही थी और ज़ारा की कहानी पर से एक एक परत साफ हो रही थी।

दोनों बहनों का बचपन बहुत की अच्छे माहौल में बीता। सारा को बहुत कम उम्र से ही कहानियाँ पढ़ने का शौक़ हुआ, हालाँकि ज़ारा को ऐसा कोई शौक़ नहीं था, लेकिन कभी कभार वक़्त गुज़ारने के लिए वह किसी पत्रिका के पन्ने इधर उधर पलट लेती। डिग्री फाइनल इयर में ही थी कि एक अच्छा सा रिश्ता देखकर उसकी शादी कर दी गयी। लड़का इंजीनियर था और दुबई में नौकरी थी। घर वालों ने समझा कि ज़िंदगी खुशहाल होगी, लेकिन कुछ ही दिन बाद इंजीनियर साहब का शक्की मिज़ाज ज़ाहिर होने लगा। तीन-साढ़े तीन साल यातनाओं से भरे थे। हालाँकि ज़ारा ने अपने परिवार को इसकी ख़बर होने नहीं दी, लेकिन मिसेज़ एहसान को एक दिन इस बात की भनक लग ही गयी। ग्रहस्ती को बनाए रखने के जो कुछ प्रयास हो सकते थे, हुए, लेकिन शक एक ऐसा वायरस है, जिसका इलाज शायद हकीम लुक़मान के पास भी नहीं रहा होगा। माँ-बाप, रिश्तेदार और ख़ुद ज़ारा के लिए भी यह फैसला लेना बहुत मुश्किल था, लेकिन फिर भी जीने के लिए तलाक़ का ज़हर पीना ही पड़ा। ऐसी कोई खुश्नुमा यादें थी नहीं, जिसके सहारे जिया जाता। घरवापसी के बाद उसने अपनी अधूरी शिक्षा का बंद दरवाज़ा खोल लिया। बीएड़ करके सरकारी स्कूल में टीचर बन गयी तो लगा कि दिल को बहलाने का सामान मिल गया है।

कुछ अच्छे की उम्मीद में दिन गुज़र रहे थे, लेकिन बुरे दिन कहाँ इतनी आसानी से पीछा छोड़ते हैं। सारा और ज़ारा के लिए रिश्ते देखे ही जा रहे थे कि सारा को कैन्सर की बीमारी का पता चल गया। मुसीबतों के साथ दुखी कितने दिन रहेंगे, दोनों बहनों ने घर के दुख भरे माहौल को दूर करने के लिए घूमना-फिरना, दावतें करना, साहित्यिक महिफिलें जमाना जैसी गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू किया। ताआज्जुब का अवसर था कि मेरे लिए यह परिवार पूरी तरह से अपरिचित होने के बावजूद, मैं उनके लिए अजनबी नहीं था। दोनों बहनों के बीच अकसर मेरी कहानियों के किरदार और फिर मैं मौजूद रहता।

अपनी कहानी सुनाते-सुनाते ज़ारा ने अचानक एक सवाल दाग़ दिया, “आपने अपनी पत्नी को क्यों छोड़ दिया?”

फिर चौंकने की बारी मेरी ही थी। मुझे समझते देर नहीं लगी कि मेरे बारे में यह परिवार आवश्यकता से अधिक जानकारी रखता है। मैंने कोई जवाब नहीं दिया। मैं कहता भी क्या, यही कि, नहीं मैंने उसे नहीं छोड़ा, वही छोड़ कर चली गयी, लेकिन मेरी आवाज़ शायद मूँह के भीतर ही दब कर रह गयी। मेरी ख़ामोशी पर ज़ारा को शायद कोई ताअज्जुब नहीं था। उसने फिर दूसरा सवाल उछाल दिया, “आपकी कहानियों के किरदारों भी अकसर तलाक़ की समस्या से झूझते रहते हैं। कहीं उनपर आपकी अपनी ज़िंदगी का असर तो नहीं है?”

मैंने इस बार भी कुछ नहीं कहा। किरदारों में कहीं अपना तो,  कहीं अपनी ही तरह दूसरों का दुःख दर्द चला आता है। मैं अपने ग़म के बिना अपने किरदारों की ग़मज़दा ज़िंदगी को भला कैसे समझ पाता। ज़ारा की बातों से अंदाज़ा हो रहा था कि वह मेरे बारे में बहुत कुछ जानती है। यह भी कि उसने अपने पति से जो कुछ भुगता, वहीं सब कुछ तो मेरे साथ भी हुआ था। बस फ़र्क़ इतना ही था, वहाँ मर्द था और यहाँ औरत। कश्तियाँ अलग-अलग थीं, लेकिन एक ही तरह के तूफ़ान की ज़द में आ गयीं थीं।

रात कितनी गुज़र गयी है, पता ही नहीं चलता अगर जेब में रखे फोन की घंटी न बजती। दूसरी तरफ सिकंदराबाद स्टेशन से ड्राइवर का फोन था। “सर ट्रेन आकर देर हो गयी है, लेकिन आप नहीं पहुँचे?”

उफ़ मैं उसे बताना भूल ही गया था। भला ट्रेन में सवार ही नहीं हुआ तो मंज़िल तक कैसे पहुँचता। ख़ैर उसे घौर लौटने के लिए कहकर मैंने फोन रख दिया। ज़ारा मेरे चेहरे की ओर ग़ौर से देखे जा रही थी। वह बहुत ही सुलझी हुई तबियत की मालिक थी। यूँ उम्र भी कुछ तीस बत्तीस से ज्यादा नहीं थी। ज़िंदगी में आये एक बड़े तूफान के गुज़र जाने के बाद उसे सामान्य होने में कुछ समय ज़रूर लगा था, लेकिन पुराने ज़ख्म अब लगभग भर गये थे। पता नहीं मैं, उसके चेहरे की तरफ यूँही कब तक देखता रहता, उसके अगले सवाल ने मुझे फिर चौंका दिया। कहने लगी, “सारा ने आख़री वक़्त कहा था कि मैं आपसे मिलूँ। देखिये न पहली ही मुलाक़ात में रात कब गुज़र गयी पता ही नहीं चला। क्या मेरे लिए आपकी असली ज़िंदगी में कोई किरदार का निभाने मौक़ा मिल सकता है?”

अब मेरे हैरत की इंतेहा हो गयी थी। फिर भी मैंने इस बार भी कोई जवाब नहीं दिया। पीछे कमरे से रोशनी झांक रही थी। यक़ीनन प्रो. एहसान अली भी अब तक जाग रहे थे। शायद वे भी जानते थे कि डिनर पर घर बुलाने से कहानी कुछ आगे बढ़ सकती है। नींद आँखों से पूरी तरह ओझल हो गयी थी। फिर भी कमरे में पहुँचकर करवटें बदलते-बदलते आँख लग ही गयी।

सुबह आँख खुली तो पाया कि ज़ारा चाय के साथ हाज़िर है। जो कुछ गुज़रा था, सब कुछ ख़्वाब जैसा लग रहा था। चाय की ट्रे के पास कुछ ख़त रखे हुए थे, जिनपर मेरा नाम लिखा था। यह सारे ख़त सारा ने लिखे थे, लेकिन पोस्ट नहीं किये थे। उनमें मेरी कहानी के किरदारों की बारे में चर्चा थी। कुछ अच्छे भी लगे थे कुछ कहानियों का अंजाम बिल्कुल पसंद नहीं आया था। पढ़ते-पढ़ते दोपहर कब हुई पता ही नहीं चला।

आख़री चिट्ठी ज़ारा के नाम थी। उसमें भी मैं ही था। लिखा था, “… कुँवर की ज़िंदगी में एक नारी पात्र की ज़रूरत है, उसकी कहानियाँ फिर नया मोड़ लेंगी। उन्हें नयी ज़मीना और नया आकाश मिलेगा। अगर तुम कुछ कर पाओ तो….।”

दोपहर के खाने के बाद प्रो. एहसान अली और मिसेज़ एहसान ने वही सवाल दोहराया, जो रात ज़ारा ने किया था। मौसम के बदले में वक़्त तो लगता है, लेकिन बहारें फिर से आने की उम्मीद बंधी रहनी चाहिए। दो दिन बाद मैं ज़ारा के साथ ज़िंदगी के दूसरे सफर पर रवाना था।  ज़िंदगी से हारकर भी उम्मीदों का दामन न छोड़ने वाली सुबह की नयी किरण जैसी सारा की यादों के साथ।

  • एफ एम सलीम