विलेन


प्रिय ज़ुबी,

खुश रहो! अभी सुबह ही मुंबई से लौटा हूँ। मेल चेक किया तो देखा कि इनबॉक्स भरा हुआ है। 520 मेल देखने हैं। लेकिन इससे पहले सोचा कि कुछ बातें तुम से शेयर करूँ। उस रात गेटवे ऑफ इंडिया के पास तुमसे हुई मुलाकात मैं भूल नहीं सकता। पूरे चार महीने के बाद हम मिले थे। कुछ ही देर में तुमसे बहुत सारी बातें हुईं। मुझे लगा कि तुम अपने नये साथी के साथ खुश नहीं हो। वह तुम्हारा पति है। हो सकता है, तुम्हें ऐसा लगता है कि वह उस तरह का नहीं है, जिस तरह के शख्स को तुम हमेशा तलाश करती रही हो। तुम हमेशा एक हीरो के बारे में सोचती रही, जिस में सभी तरह के अच्छे गुण हों। वह अच्छा, अच्छा और अच्छे से अच्छा हो, लेकिन मेरी तुमसे सलाह है कि उसके किसी एक अच्छे गुण में ही अपना हीरो तलाश कर लो।

तुम्हें लगता था कि मैं तुम्हारी सोचों की तरह हूँ। कल रात भी तुमने मेरी तारीफ करते हुए कहा था…तुम इतने अच्छे कैसे हो अमन…कुछ पल के लिए तो मुझे तुम्हारे पंखुड़ियों जैसे होठों के बीच से निकले वो शब्द बहुत सुकून पहुँचाने वाले थे, लेकिन जब मैं तुमसे मिलकर होटल के अपने कमरे में लौटा और अपने बारे में सोचने लगा कि क्या मैं सचमुच में वैसा ही हूँ, जैसे तुम सोचती हो। बिल्कुल साफ सुथरा, सच्चा, ईमानदार दूसरों के लिए अच्छा सोचने वाला, नकारात्मकताओं से दूर, सदाचार, सद्बुद्धि और सदविचारों से भरपूर। कभी किसी औरत की तरफ़ ग़लत निगाह नहीं डाली, कभी किसी का माल हड़पने का विचार मन में नहीं आया। कभी किसी को जानबूझ कर नहीं सताया। … तुम मेरे बारे में ऐसा ही सोचती रही, लेकिन मैं शत प्रतिशत ऐसा ही हूँ, नहीं कह सकता। हाँ! मैंने ऐसा बनने की कोशिश ज़रूर की। बल्कि मैं दुनिया को दिखाता रहा कि मैं ऐसा ही हूँ।

मुझे लगता है कि मैं हीरो जैसा ज़रूर हूँ, लेकिन हीरो नहीं हूँ। इसलिए भी कि मुझ में एक विलेन अब भी ज़िंदा है। वह बार-बार सिर उठाता रहता है। बार-बार ऐसा कुछ करने को उकसाता रहता है, जो अनुचित है, ऐसा कुछ जो हीरो के गुण जैसा न हो, बल्कि विलेन की पहुँच में आसान हो, लेकिन मैं उसकी बातों में नहीं आता..। फिर सोचता हूँ… क्या यह सही है कि मैं उसकी बातों में कभी नहीं आया। मैं अपने आपसे पूछता हूँ तो, लगता है कि किसी ने बहुत ज़ोर का थप्पड़ रसीद कर दिया है और कह रहा है, .. नहीं बाबू तू इतना अच्छा भी नहीं है, जितना दिखने या दिखाने की कोशिश करता है। दरअसल तू अच्छा इसलिए बन पाया क्यों कि तुझे विलेन बनने के अवसर नहीं मिले, वरना तू और….. आगे कुछ सुनने से पहले मैं अपने कान बंद कर लेता हूँ।

ज़ुबी! तुमको याद है, मैंगलूर बीच पर टहलने के दौरान की वह घटना। तुमने मेरा मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा था, “कौन बेवक़ूफ समंदर के किनारे आँखे मूंदे लेटता है। आस पास के नज़ारे देखो, सुंदर अप्सराएँ इधर-उधर घूम रही हैं, क्या उन्हें देखने का मन नहीं करता?”

दर असल तुम कह तो मुझे रही थी, लेकिन तुम्हारा इशारा प्यार भरी नज़रों से मुझे निहार रही सारिका की ओर था। सारिका भी शायद मेरे बारे में यही सोच रही थी कि उसका पति समंदर के किनारे अटखेलियाँ कर रहीं, भीगी भागी उन अप्सराओं में कोई दिलचस्पी नहीं रखता। सारिका के मिज़ाज को भला तुमसे बेहतर कौन जान सकता है। तुम उसकी बचपन की सहेली हो। मैंने तो बस ज़िंदगी के आठ-दस साल ही उसके साथ गुज़ारे हैं। एक पति के रूप में, मैं उसके सामने भी यही कोशिश करता रहता हूँ कि मैं बहुत अच्छा इन्सान हूँ। शायद उसने तुम्हें भी यही सब कुछ बताया होगा, लेकिन मैं तुम्हे बताना चाहता हूँ। उस दिन सामने समंदर की लहरों का शोर था, लेकिन मैं उस शोर को नहीं सुन पा रहा था, क्योंकि मेरे भीतर भी एक शोर था। ख्वाहिशों और इच्छाओं का शोर, जिसकी लहरें बार-बार उठती रहती हैं। मैंने आँखें सिर्फ इसलिए बंद कर ली थीं कि मैं अपने भीतर के विलेन को सांसें लेता महसूस कर रहा था।

तुम जानती हो कि मैं तन्हाइयों से डरता हूँ, लेकिन क्यों? यह तुम्हें पता नहीं है। तुमने महसूस किया होगा कि मैं तुमसे हमेशा अकेले में मिलने से बचता रहा। इसी कारण कि कहीं ऐसा कुछ न कर बैठू कि तुम्हारे दिमाग में मेरी जो छवि है, वह खराब न हो जाए। एक बार की बात है कि एक फक़ीर सूफ़ी मनिषी से मेरी मुलाक़ात हुई थी। उन दिनों मेरी उम्र बीस-इक्कीस की रही होगी। उन्होंने बहुत सारी नसीहतें देते हुए एक बात कहीं थी, कोशिश करो कि तन्हा न रहो और ना ही एकांत में किसी ऐसी स्त्री से मिलो, जिससे तुम्हारा निकट का संबंध न हो। वह ऐसी उम्र होती है, जब किसी की नसीहतों पर बहुत कम ही गंभीर हुआ जाता है, लेकिन उन दिनों जब सारिका से मेरी शादी नहीं हुआ थी, लेकिन हम यहाँ वहां मिल लिया करते थे, उस फ़क़ीर की नसीहत बहुत याद आती थी। कोशिश यही करता था कि दोस्ती में दाग़ न लगे। कई बार ऐसे अवसर भी आये, जब हम आसानी से एक दूसरे के हो सकते थे, लेकिन मैं अपने को विलेन बनने से बचाने के प्रयास में उसके विश्वास को प्राप्त करने में सफल रहा। आज वह बड़े गर्व से कहती फिरती है कि विवाह से पहले मैंने उसके सम्मान को कभी ठेस नहीं पहुंचाई।

मेरी बात करूं तो, कई बार मन को यह कहकर समझाना पड़ता था कि संभल जाओ। उसी तरह जैसे फिल्म साथ-साथ में फारूक़ शेख ने दीप्ति नवल के कांधे से सरकते दुपट्टे को फिर से कांधे पर डालते हुए कहा था, .. आज फिर दिल ने एक तमन्ना की, आज फिर दिल को हमने समझाया। …

ज़ूबी! यह आदमी के भीतर का जो विलेन है ना, उसे बस मौका चाहिए। ऐसे मौके शायद कई बार आये भी होंगे, लेकिन इसके बावजूद विवेक नाम की एक चीज़ भीतर कहीं न कहीँ मौजूद रहती है, जिसे हिंदी फिल्मों में ज़मीर की आवाज़ भी कहा जाता है, शायद यही वो चीज़ है, जो विलन को प्रभावी होने से रोकती रहती है। किसी के पास यह चीज़ जब बहुत कमज़ोर हो जाती है तो उसके भीतर का विलेन प्रभावशाली होने लगता है..और.. और अगर ज़मीर को ज़िंदा रखना है, तो विलेन का पतन ज़रूरी है।

ज़ूबी! मैं चाहता हूँ कि बिल्कुल तुम्हारी सोचों की तरह बन जाऊं और ऐसा कुछ करूँ कि अपने भीतर का वह विलेन ऐसी स्थिति में चला जाए, जिसे चिकित्सकीय भाषा में कोमा कहते हैं और फिर डॉक्टर जिस तरह अपने मरीज़ के जीने की उम्मीद खो बैठते हैं, मैं भी अपने भीतर के विलेन के लौट आने की उम्मीद खो बैठूँ। क्या ऐसा हो सकता है? हो भी जाए। इंतज़ार कर रहा हूँ, उस दिन का। शायद आ भी जाए।


तुम्हारा दोस्त
अमन