सोंधी मिट्टी को महकाते बिखरे फूल
हैदराबाद के प्रतिष्ठित चिकित्सक डॉ. मोहन गुप्ता साहब के टेबल पर रखी एक किताब पर नज़र पड़ी तो पाया कि इसका मुखप्रष्ठ काफी आकर्षक है। हल्के गुलाबी रंग के गुड़हल के कुछ फूल और उसकी पंखुड़ियाँ पृष्ठ पर बिखरी हुई हैं। पुस्तक का नाम था ‘बिखरे फूल’, उसके नीचे जो नाम था, वह काफी जाना पहचाना था, जी हाँ, एम. डी. गोयल। मेरी खुश्किस्मती समझिए कि यह किताब उस टेबल पर शायद मेरे लिए ही रखी हुई थी, क्योंकि वहाँ पर बैठे तीनों महानुभावों, अर्थात डॉ. गुप्ता साहब, मित्र मनोज गोयल और नंदगोपाल भट्टड़जी ने सस्नेह वह पुस्तक मेरे हवाले की।
वह शाम मेरे लिए सचमुच में एक अच्छी शाम थी, क्योंकि इस तथ्य के बावजूद कि कोई नई किताब घर लाने पर बेगम की तीखी नज़रों का सामना करना पड़ता है, मुझे किताब के साथ घर पहुँचना अच्छा लगता है, क्योंकि किताबों से ही मालूम हुआ है कि जिनको जिंदगी से प्यार है, उन्हें प्रकृति से भी प्यार होना लाज़मी है और जो प्रकृति से प्यार करते हैं, उन्हें गुलशन में खुश्बू फैलाने वाले फूलों से तो मुहब्बत होती ही है, वो कांटों की चुभन के महत्व को भी समझते हैं। यही चुभन उन्हें फूलों की महक में छुपी संभावनाओं का संकेत देती है, जैसे रात के बाद सुबह, दुख के बाद सुख और आँसुओं के बाद मुस्कुराहट।
मनभर दयाल गोयल, जी हाँ, एम डी गोयल की किताब बिखरे फूल के पन्ने पलटते हुए जिंदगी की कई परतें एक-एक करके खुलती हैं और एक के बाद एक कई रंग अपनी छटाएँ छोड़कर आसपास के माहौल में बिखर जाते हैं। कवि के खट्टे, मीठे कड़वे अनुभव फूल की पंखुड़ियों की तरह इन पन्नों पर रचनाओं में रच बस गये हैं। गोयल साहब वाणिज्य और कानून के प्रोफेसर रहे हैं, लेकिन उनकी रुचि शायरी में अधिक रही है। विभाजन से पूर्व हुस्नाबाद(अब पाकिस्तान में) पले बढ़े गोयल जी की प्रारंभिक शिक्षा उर्दू माध्यम में हुई है, हिंदी उनकी मातृभाषा है इस लिए इस किताब में भी दोनों भाषाओं को आधे-आधे समर्पित होकर उन्होंने पूरा कर्ज़ चुका दिया है।
मशहूर शायर मुनव्वर राना ने कहा था-
लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं और हिंदी मुस्कुराती है’
आखिर इस काव्य संग्रह की रचनाओं के मूल में क्या है, यह जानने के लिए कवि की लिखी भूमिका पर नज़र पड़ती है तो साफ होता है कि इसमें वो सब बाते हैं, जो कभी शूल बनकर चुभा करती थीं, कुछ बातें जो उनके मन के मूल में थी, जिन्हें दिल में दबाकर नहीं रखा जा सकता था, वह सब शब्दरूपी फूलों की सुगंध बनकर बिखर गयीं।
विभाजन की त्रासदी के दौरान लाखों लोग अपनों से बिछड़ गये, गोयल साहब के गाँव की किस्मत अच्छी थी कि वहाँ मियाँ फतेह मुहम्मद जैसा तटस्थ व्यक्ति अपने हिंदु भाइयों की जान बचाने के लिए दीवार की तरह खड़ा था। गोयल साहब का परिवार उस गांव से निकल तो गया, लेकिन हुस्नाबाद से हैदराबाद आने और यहाँ बसने के लिए एक लंबे संघर्ष से गुज़रना पड़ा। फिर तो उन्होंने उस्मानिया विश्ववविद्यालय और निज़ाम कॉलेज में अपने विद्यार्थियों के बीच जो सम्मान पाया वह उनके संघर्ष का ही सिला था।
अरबी के मशहूर विद्वान खलील जिब्रान ने कहा था– आज से कल का जन्म होता है। खिज़ां अर्थात पतझड़ की कोख से बहार पैदा होती है और सूखे पत्ते धरती की गोद में समाकर हरियाली और फूलों को रूप देते हैं। आंसुओं की गर्मी से मुस्कुराहटें जाग उठती हैं। गोयल साहब की कविताओं और नज़्मों में भी यही भाव झलकते हैं। उनमें उल्फत की रोशनी से अंधेरे मिटाने का जज़्बा भी है और जात-पात, पंथ और धर्म से ऊपर इंसानियत की पहचान भी। भाईचारगी का संदेश देते हुए कवि कहता है-
हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध, जैन आदि भाई
मनके हैं यह अलग अलग पर एक बनाएंगे माला
गोयल साहब ठीक कहते हैं कि उनकी रचनाएं मालिक की याद में या फिर जीवन के प्रसंगानुसार, शब्द रूप लेती रही हैं। लल्ला की शादी में नयी रस्मो का जिक्र है, चौधरी चाचा की याद है, फिल्मी भाषा का निरालापन है, सहजीवन और वेलंटाइन पर कटाक्ष भी है। प्याज महिमा, क्रिकेट महान, म्युजियम, पासवर्ड, ब्रह्म भोज जैसे शीर्षक बताते हैं कि विभिन्न विषय अपने प्रसंग में लिपटे हुए हैं। वे राजनीति पर बात करते हैं तो किसी को नहीं बख्शते, चाहे तेलुगु मुहावरा कुलम-कुलम वकटी का सराहा लेते हुए वे अपने समय के दिग्गज राजनेताओं पर भी भरपूर व्यंग करते हैं। ‘समय की करवट’ कविता में वे कहते हैं-
देश हमारा नेता अपने गुंडे कोई गैर नहीं
सहयोग करे नौकरशाह तो जनता की फिर खैर नहीं
इस कमाल की तिकड़ी बस एक सहज गठबंधन है
मिलजुलकर सब खाते हैं, कभी किसी से बैर नहीं
अंग्रेज़ी, उर्दू और हिंदी के लेखकों को उन्होंने खूब पढ़ा है। उनकी रचनाओं पर प्रेमचंद और कबीर के प्रभाव को साफ देखा जा सकता है। एक कविता केवट की कुछ पंक्तियाँ हैं-
गहरी नदिया नाव पुरानी
उठती हैं लहरें तूफानी
पल पल भरता जाए पानी
केवटिया करता मनमानी
गहरी नदिया नाव पुरानी
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए अनायास ही प्रेमचंद के उपन्यास निर्मला का बीज स्वप्न याद आता है, जिस पर उपन्यास की पूरी कहानी का आधार है। ‘ऐ दो जहाँ के मालिक’ नज़्म की कुछ पंक्तियाँ हैं, जिससे अनायस ही कबीर याद आ जाते हैं-
कर कुछ तो रहनुमाई मश्किल की इस घड़ी में
कोई तो फूल होगा कांटों की इस लड़ी में
रहीम ओ करीम तू है और मैं हूँ एक सवाली
जो लाल ओ लाल कर दे ऐसी है तेरी लाली
जिंदगी एक ऐसा सफर है, जिसमें चाहे दरिया से गुज़र हो या समंदर से आदमी अकसर प्यासा ही रह जाता है। जब थक हार के वह मयकदे की राह लेता है, वहाँ भी उसकी प्यास नहीं बुझती। गोयल साहब की एक रचना है, छोड़ दे इस मयकदे को … इसमें एक शब्द का उपयोग हुआ है, तश्ना लब अर्थात प्यासे होंट। इसी तिश्ना लबी के साथ शायर मयकदे से निलता है।
फेर ली साक़ी ने आँखें हो गयी है निस्फ शब
छोड़ दे इस मयकदे को राह ले ऐ तिश्ना लब
हो चुकी सरमस्तियाँ और जाम भी खाली हैं अब
छोड़ दे इस मयकदे को राह ले ऐ तिश्ना लब
इस रचना को पढ़ते हुए इब्ने इंशा की याद आ जाती है, उन्होंने कहा था
‘इंशा‘-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या
शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में
क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या
किसी भी रचनाकार के लिए लाला वो गुल, शमा परवाना और प्यार मुहब्बत के साथ-साथ जीवन की कड़वी सच्चाइयां और आस पास गुज़रते प्रसंग काफी महत्व रखते हैं। ऐसी घटनाओं का वर्णन करते हुए वह कुछ देर के लिए काव्यात्मक पत्रकार बन जाता है। शहर की सड़कों पर एक बहुत ही सुंदर रचना पढ़ते हुए मैंने महसूस किया कि इससे इस विषय पर इससे अच्छा कहना मुश्किल है-
सड़कें सारी हो गई हैं आज चेचक की शिकार
ना कोई ग़मख्वार इनका ना कोई तीमारदार
एम डी गोयल ने विश्वविदायलयीन शिक्षक के रूप में पूरी आब वो ताब के साथ जिंदगी जी है, कभी किसी परीस्थति के साथ समझौता नहीं किया। तरक्कियों को ठुकराकर अपने स्वाभिमान औप इच्छाओं का सम्मान किया। कानून और वाणिज्य के अध्येयता होने के बावजूद उन्होंने रूहनियत को प्राथमिकता दी और मजहब में बांटने वालों से अलग इंसानियत के महत्व को समझने और समझाने का प्रयास किया। कहते हैं-
मज़हब तो बांट देते हैं बेवजह बेसबब
इत्तिहाद जो कराये वो इंसानियत ही है
ईमाँ की रोशनी से हो गोयल जो तरबतर
हर वक़्त उसके रू ब रू वहदानियत ही है
गोयल साहब ने 90 बसंत पूरे कर लिये हैं। उनके व्यक्तित्व की छाया भी रचनाओं पर पड़ी है। अपने जीवन पर एक तरह का संतोष उन्हें हैं। कहे हैं-
लो सफर पूरा हुआ मंज़िल नज़र आने लगी
बोझ सब हल्के हुए और नींद सी आने लगी
कुछ हमसफर थे वो तो कब के अपनी मंजिल पा गये
उनकी यादें, उनकी बातें दिल को सहलाने लगी
हरि प्रिया द्वारा बहुत ही खूबसूरत मुखपृष्ठ और बैक टाइटल में सुसज्जित लगभग नब्बे पृष्ठों के इस काव्यसंग्रह में 42 रचनाएँ हैं और 45 बहुत ही सुंदर रेखांकन हैं। निश्चित ही यह बिखरे फूल ज़मीन पर बिखरकर सोंधी मिट्टी को महकाते रहेंगे। अगर यह किताब आपके कलेक्शन का हिस्सा होगी तो वह अनमोल होगा।
एफ एम सलीम
सोंधी मिट्टी को महकाते बिखरे फूल
हैदराबाद के प्रतिष्ठित चिकित्सक डॉ. मोहन गुप्ता साहब के टेबल पर रखी एक किताब पर नज़र पड़ी तो पाया कि इसका मुखप्रष्ठ काफी आकर्षक है। हल्के गुलाबी रंग के गुड़हल के कुछ फूल और उसकी पंखुड़ियाँ पृष्ठ पर बिखरी हुई हैं। पुस्तक का नाम था ‘बिखरे फूल’, उसके नीचे जो नाम था, वह काफी जाना पहचाना था, जी हाँ, एम. डी. गोयल। मेरी खुश्किस्मती समझिए कि यह किताब उस टेबल पर शायद मेरे लिए ही रखी हुई थी, क्योंकि वहाँ पर बैठे तीनों महानुभावों, अर्थात डॉ. गुप्ता साहब, मित्र मनोज गोयल और नंदगोपाल भट्टड़जी ने सस्नेह वह पुस्तक मेरे हवाले की।
वह शाम मेरे लिए सचमुच में एक अच्छी शाम थी, क्योंकि इस तथ्य के बावजूद कि कोई नई किताब घर लाने पर बेगम की तीखी नज़रों का सामना करना पड़ता है, मुझे किताब के साथ घर पहुँचना अच्छा लगता है, क्योंकि किताबों से ही मालूम हुआ है कि जिनको जिंदगी से प्यार है, उन्हें प्रकृति से भी प्यार होना लाज़मी है और जो प्रकृति से प्यार करते हैं, उन्हें गुलशन में खुश्बू फैलाने वाले फूलों से तो मुहब्बत होती ही है, वो कांटों की चुभन के महत्व को भी समझते हैं। यही चुभन उन्हें फूलों की महक में छुपी संभावनाओं का संकेत देती है, जैसे रात के बाद सुबह, दुख के बाद सुख और आँसुओं के बाद मुस्कुराहट।
मनभर दयाल गोयल, जी हाँ, एम डी गोयल की किताब बिखरे फूल के पन्ने पलटते हुए जिंदगी की कई परतें एक-एक करके खुलती हैं और एक के बाद एक कई रंग अपनी छटाएँ छोड़कर आसपास के माहौल में बिखर जाते हैं। कवि के खट्टे, मीठे कड़वे अनुभव फूल की पंखुड़ियों की तरह इन पन्नों पर रचनाओं में रच बस गये हैं। गोयल साहब वाणिज्य और कानून के प्रोफेसर रहे हैं, लेकिन उनकी रुचि शायरी में अधिक रही है। विभाजन से पूर्व हुस्नाबाद(अब पाकिस्तान में) पले बढ़े गोयल जी की प्रारंभिक शिक्षा उर्दू माध्यम में हुई है, हिंदी उनकी मातृभाषा है इस लिए इस किताब में भी दोनों भाषाओं को आधे-आधे समर्पित होकर उन्होंने पूरा कर्ज़ चुका दिया है।
मशहूर शायर मुनव्वर राना ने कहा था-
लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं और हिंदी मुस्कुराती है’
आखिर इस काव्य संग्रह की रचनाओं के मूल में क्या है, यह जानने के लिए कवि की लिखी भूमिका पर नज़र पड़ती है तो साफ होता है कि इसमें वो सब बाते हैं, जो कभी शूल बनकर चुभा करती थीं, कुछ बातें जो उनके मन के मूल में थी, जिन्हें दिल में दबाकर नहीं रखा जा सकता था, वह सब शब्दरूपी फूलों की सुगंध बनकर बिखर गयीं।
विभाजन की त्रासदी के दौरान लाखों लोग अपनों से बिछड़ गये, गोयल साहब के गाँव की किस्मत अच्छी थी कि वहाँ मियाँ फतेह मुहम्मद जैसा तटस्थ व्यक्ति अपने हिंदु भाइयों की जान बचाने के लिए दीवार की तरह खड़ा था। गोयल साहब का परिवार उस गांव से निकल तो गया, लेकिन हुस्नाबाद से हैदराबाद आने और यहाँ बसने के लिए एक लंबे संघर्ष से गुज़रना पड़ा। फिर तो उन्होंने उस्मानिया विश्ववविद्यालय और निज़ाम कॉलेज में अपने विद्यार्थियों के बीच जो सम्मान पाया वह उनके संघर्ष का ही सिला था।
अरबी के मशहूर विद्वान खलील जिब्रान ने कहा था– आज से कल का जन्म होता है। खिज़ां अर्थात पतझड़ की कोख से बहार पैदा होती है और सूखे पत्ते धरती की गोद में समाकर हरियाली और फूलों को रूप देते हैं। आंसुओं की गर्मी से मुस्कुराहटें जाग उठती हैं। गोयल साहब की कविताओं और नज़्मों में भी यही भाव झलकते हैं। उनमें उल्फत की रोशनी से अंधेरे मिटाने का जज़्बा भी है और जात-पात, पंथ और धर्म से ऊपर इंसानियत की पहचान भी। भाईचारगी का संदेश देते हुए कवि कहता है-
हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध, जैन आदि भाई
मनके हैं यह अलग अलग पर एक बनाएंगे माला
गोयल साहब ठीक कहते हैं कि उनकी रचनाएं मालिक की याद में या फिर जीवन के प्रसंगानुसार, शब्द रूप लेती रही हैं। लल्ला की शादी में नयी रस्मो का जिक्र है, चौधरी चाचा की याद है, फिल्मी भाषा का निरालापन है, सहजीवन और वेलंटाइन पर कटाक्ष भी है। प्याज महिमा, क्रिकेट महान, म्युजियम, पासवर्ड, ब्रह्म भोज जैसे शीर्षक बताते हैं कि विभिन्न विषय अपने प्रसंग में लिपटे हुए हैं। वे राजनीति पर बात करते हैं तो किसी को नहीं बख्शते, चाहे तेलुगु मुहावरा कुलम-कुलम वकटी का सराहा लेते हुए वे अपने समय के दिग्गज राजनेताओं पर भी भरपूर व्यंग करते हैं। ‘समय की करवट’ कविता में वे कहते हैं-
देश हमारा नेता अपने गुंडे कोई गैर नहीं
सहयोग करे नौकरशाह तो जनता की फिर खैर नहीं
इस कमाल की तिकड़ी बस एक सहज गठबंधन है
मिलजुलकर सब खाते हैं, कभी किसी से बैर नहीं
अंग्रेज़ी, उर्दू और हिंदी के लेखकों को उन्होंने खूब पढ़ा है। उनकी रचनाओं पर प्रेमचंद और कबीर के प्रभाव को साफ देखा जा सकता है। एक कविता केवट की कुछ पंक्तियाँ हैं-
गहरी नदिया नाव पुरानी
उठती हैं लहरें तूफानी
पल पल भरता जाए पानी
केवटिया करता मनमानी
गहरी नदिया नाव पुरानी
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए अनायास ही प्रेमचंद के उपन्यास निर्मला का बीज स्वप्न याद आता है, जिस पर उपन्यास की पूरी कहानी का आधार है। ‘ऐ दो जहाँ के मालिक’ नज़्म की कुछ पंक्तियाँ हैं, जिससे अनायस ही कबीर याद आ जाते हैं-
कर कुछ तो रहनुमाई मश्किल की इस घड़ी में
कोई तो फूल होगा कांटों की इस लड़ी में
रहीम ओ करीम तू है और मैं हूँ एक सवाली
जो लाल ओ लाल कर दे ऐसी है तेरी लाली
जिंदगी एक ऐसा सफर है, जिसमें चाहे दरिया से गुज़र हो या समंदर से आदमी अकसर प्यासा ही रह जाता है। जब थक हार के वह मयकदे की राह लेता है, वहाँ भी उसकी प्यास नहीं बुझती। गोयल साहब की एक रचना है, छोड़ दे इस मयकदे को … इसमें एक शब्द का उपयोग हुआ है, तश्ना लब अर्थात प्यासे होंट। इसी तिश्ना लबी के साथ शायर मयकदे से निलता है।
फेर ली साक़ी ने आँखें हो गयी है निस्फ शब
छोड़ दे इस मयकदे को राह ले ऐ तिश्ना लब
हो चुकी सरमस्तियाँ और जाम भी खाली हैं अब
छोड़ दे इस मयकदे को राह ले ऐ तिश्ना लब
इस रचना को पढ़ते हुए इब्ने इंशा की याद आ जाती है, उन्होंने कहा था
‘इंशा‘-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या
शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में
क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या
किसी भी रचनाकार के लिए लाला वो गुल, शमा परवाना और प्यार मुहब्बत के साथ-साथ जीवन की कड़वी सच्चाइयां और आस पास गुज़रते प्रसंग काफी महत्व रखते हैं। ऐसी घटनाओं का वर्णन करते हुए वह कुछ देर के लिए काव्यात्मक पत्रकार बन जाता है। शहर की सड़कों पर एक बहुत ही सुंदर रचना पढ़ते हुए मैंने महसूस किया कि इससे इस विषय पर इससे अच्छा कहना मुश्किल है-
सड़कें सारी हो गई हैं आज चेचक की शिकार
ना कोई ग़मख्वार इनका ना कोई तीमारदार
एम डी गोयल ने विश्वविदायलयीन शिक्षक के रूप में पूरी आब वो ताब के साथ जिंदगी जी है, कभी किसी परीस्थति के साथ समझौता नहीं किया। तरक्कियों को ठुकराकर अपने स्वाभिमान औप इच्छाओं का सम्मान किया। कानून और वाणिज्य के अध्येयता होने के बावजूद उन्होंने रूहनियत को प्राथमिकता दी और मजहब में बांटने वालों से अलग इंसानियत के महत्व को समझने और समझाने का प्रयास किया। कहते हैं-
मज़हब तो बांट देते हैं बेवजह बेसबब
इत्तिहाद जो कराये वो इंसानियत ही है
ईमाँ की रोशनी से हो गोयल जो तरबतर
हर वक़्त उसके रू ब रू वहदानियत ही है
गोयल साहब ने 90 बसंत पूरे कर लिये हैं। उनके व्यक्तित्व की छाया भी रचनाओं पर पड़ी है। अपने जीवन पर एक तरह का संतोष उन्हें हैं। कहे हैं-
लो सफर पूरा हुआ मंज़िल नज़र आने लगी
बोझ सब हल्के हुए और नींद सी आने लगी
कुछ हमसफर थे वो तो कब के अपनी मंजिल पा गये
उनकी यादें, उनकी बातें दिल को सहलाने लगी
हरि प्रिया द्वारा बहुत ही खूबसूरत मुखपृष्ठ और बैक टाइटल में सुसज्जित लगभग नब्बे पृष्ठों के इस काव्यसंग्रह में 42 रचनाएँ हैं और 45 बहुत ही सुंदर रेखांकन हैं। निश्चित ही यह बिखरे फूल ज़मीन पर बिखरकर सोंधी मिट्टी को महकाते रहेंगे। अगर यह किताब आपके कलेक्शन का हिस्सा होगी तो वह अनमोल होगा।
एफ एम सलीम