अंबाजोगाई के यशवंतराव चव्हाण महाविद्यालय में कुछ यादगार पल

कभी-कभी कुछ यात्राएं यादगार बन जाती हैं। यह ज़रूरी नहीं है कि उस यात्रा का समय बहुत लंबा हो या फिर यात्री कई स्थानों से होकर गुज़रा हो। इतना भर काफी है कि वह यात्रा है और यात्री के अनुभवों का हिस्सा बन गयी हैं। ऐसी ही एक यात्रा का वृत्तांत आप इसको रिपोर्ताज़ भी कह सकते हैं, डिजिटल काग़ज़ के हवाले कर रहा हूँ। कलम के हवाले इसलिए नहीं कह सकता कि इस प्रक्रिया में की बोर्ड की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण है। हालाँकि यात्रा के दौरान वृत्तांत की नोटिंग में थोड़ा बहुत क़लम का इस्तेमाल ज़रूर हुआ है। बात 4 मार्च 2024 की है। सुबह अभी कुछ देर पहले ही हुई है। सूरज उधर परली वैजनाथ रेलवे स्टेशन की इमारत के पीछे कहीं छुपा है। सामने की उड़पी होटल में बहुत मीठी होने के बावजूद कॉफी इसलिए भी बिना शिकायत किये पी ली क्योंकि आर्डर देते समय हमने यह नहीं कहा था कि शकर के साथ या बिना शकर के। हो सकता है कि किचन काउंटर के पास खड़े व्यक्ति ने हमारे चेहरे से जान लिया होगा कि ये लोग मीठी ही पीते होंगे। कभी-कभी ऐसा समझ लेना अच्छा होता है और कभी-कभी नहीं भी। कॉफी की पहली चुस्की के बाद सामने बैठीं डॉ. सुषमा देवी की प्रतिक्रिया से शायद शेफ-कम वेटर ने समझ लिया कि कुछ गड़बड़ है और उसने थोड़ा सा दूध दोनों ग्लास में डालकर कुछ भरपाई करने की कोशिश की। अब उसे क्या पता कि यह दाल में नमक ज्यादा होने जैसा नहीं था कि आप कुछ आलू छोड़ दें या नींबू निचोड़ दें।

यशवंत राव चव्हाण महाविद्यालय का सुंदर परिसर

खैर! अगले स्टेशन के लिए सफर शुरू हुआ, अब इसके लिए भी तैयार होना था कि सफर के अंग्रेज़ी अर्थ(suffer) के अनुभव भी मिल जाएं तो स्वागत ही करना होगा। अपना-अपना बैग उठाए हम बस अड्डे की ओर चल पड़े। बिल्कुल पास ही एक अजीब सा वीरान परिसर, न सफाई का रखरखाव और ना ही कोई उल्लेखनीय सुविधाएँ, भीतर जाने के बाद ही एहसास हुआ कि यह बस अड्डा है और कुछ लोग बसों की प्रतीक्षा में खड़े हैं। कुछ ही देर में हमारी बस मराठवाड़ा के ऐतिहासिक शहर अंबाजोगाई की सड़क पर फर्राटे भर रही थी। सड़क के दोनों ओर सूखे पड़े खेत, मैदान, कुछ-कुछ स्थानों पर छोटे-छोटे पहाड़ और बारिश पानी बह जाने भर से बनीं वादियाँ, जहाँ पानी तक पहुँच संभव थी, लोगों ने कुछ हरापन बनाए रखा था। लगभग आधे घंटे की यात्रा में महसूस हो गया कि गर्मियाँ शुरू हो चुकी हैं। हालांकि सुबह-सुबह कुछ ठंडी हवाएँ ज़रूर चल रही थीं। बस से उतरे तो कुछ देर में डॉ. अरविंद घोड़के अपनी नई-नवेली कार के साथ हमारे सामने मौजूद थे।

शहर की सड़कें बता रही थीं कि लोग इतिहास की तुलना में वर्तमान में जीना ज्यादा पसंद करते हैं। सड़क के दोनों ओर होर्डिंग्स की भरमार है। क्षेत्र की युवा आमदार (विधायक) की लंबी उम्र की कामना करते हुए कई सारे होर्डिंग बस अड्डे के पास लोगों का स्वागत कर रहे हैं। सड़कों के किनारे बड़ी-बड़ी नालियाँ खोदी गयी हैं, शायद बरसात से पहले बरसाती पानी की निकासी की तैयारियाँ चल रही हैं। बस एक दो मिनट ही लगे होंगे, नगरपालिका कार्यालय और आदि कवि बालमुकुंद सभागार से कुछ आगे हमारी गाड़ी होटल के पास रुक गयी।

शोध पत्रों पर आधारित संस्मारिका का लोकार्पण

हैदराबाद से अंबाजोगाई लगभग 10 घंटे की यात्रा हो चुकी है, लेकिन अब आराम करने का समय नहीं है। पास की उड़पी होटल में साबूदाना खिचड़ी और शीरा(मिठाई) से नाश्ता पूरा कर हम सीधे यशवंतराव चव्हाण महाविद्यालय के सुंदर, हरित, साफ सुथरे और मनोरम परिसर में पहुँच गये। यहाँ प्राचार्य व मराठी के विद्वान डॉ. शिवदास शिरसाठ हमारे स्वागत में गुलाब जामुन और चाय के साथ मेज़बानी के लिए तैयार बैठे हैं।  

आज कल कोई साहित्यिक कार्यक्रम समय पर शुरू हो तो उससे बड़ा पुण्य स्मरण और क्या हो सकता है, लेकिन आयोजकों की लाख कोशिश के बावजूद कुछ अतिथियों की प्रतीक्षा मेज़बानों के साथ-साथ दूसरे कुछ अतिथियों को भी करनी पड़ती है और हज़ार पुराने तजुर्बों के बावजूद उद्घाटन कार्यक्रम अगले सत्र की सीमा में घुस ही जाता है और कभी-कभार वह अगले सत्र को भी खा जाता है। यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

कार्यक्रम का प्रारंभ कुछ देर से ही सही अच्छा हुआ। इत्तफाक ही समझिए कि हैदराबाद से 350 किलोमीटर की दूरी पर बसे इस शहर के उस छोटे से सभागार में कई चेहरे ऐसे निकल आये, जिनका कोई न कोई संबंध हैदराबाद से है। डॉ. चंद्रदेव कवडे हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद के अध्यक्ष हैं, हालाँकि रहते औरंगाबाद में हैं। पूर्व पुलिस अधिकारी डॉ. हरिराम मीणा हैदराबाद में रह चुके हैं। डॉ. सुषमा देवी हैदराबाद के बद्रुका कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। नांदेड़ के पीपुल्स कॉलेज से सेवानिवृत्त हो चुकीं डॉ. रमा नवले से लगभग बीस साल बाद मुलाक़ात हो रही है। डॉ. भारती गोरे से एक बार हैदराबाद में मिल चुका था। कुछ ऐसे चेहरे भी थे, जिनसे वाया-वाया जान पहचान निकल आयी। कुछ प्रो. रणसुभे जी के शिष्य हैं तो कुछ डॉ. अर्जुन चव्हाण को जानते हैं। डॉ. वीरश्री आर्या के संचालन में आखिरकार संगोष्ठी का उद्घाटन समारोह प्रारंभ हुआ। प्रबंधन समिति के सदस्य सय्यद पाशु मियाँ करीम ने संगोष्ठी में अपने अनुभवों को जोड़ा।

डॉ. चंद्रदेव कवड़े समारोह को संबोधित करते हुए

उद्घाटक डॉ. चंद्रदेव कवडे ने अस्तित्व, अस्मिता, पहचान, सहानुभूति, स्वानुभूति, अपने होने का एहसास(मैं हूँ) जैसे शब्दों से हिंदी साहित्य के विभिन्न विमर्श और विमर्शों की आलोचना, समालोचना, समीक्षा पर अपना पक्ष रखते हुए इन विषयों की व्यापकता पर विचार करने पर जोर दिया। विभिन्न अतिथियों द्वारा अपने-अपने विचार संक्षिप्त में रखने बाद डॉ. हरिराम मीणा बीज वक्तव्य के लिए हाजिर हुए। डॉ. मीणा आदिवासी विमर्श के साथ-साथ देश में प्राकृतिक संपदाओं पर उनके अधिकार और संसाधनों के दोहन से उन पर पड़ने वाले प्रभाव से लोकतंत्र पर संभावित ख़तरों पर नज़र रखते हैं। उन्होंने ज्ञान की आंधी की बात करने वाले कबीर से लेकर नया आख्यान गढ़ते हुए गारंटियाँ प्रदान करने की सोच रखने वाले राजनीतिक नेतृत्व तक विस्तार से चर्चा की। दलित विमर्श को साहित्यिक लोकतंत्र का प्रवक्ता बताते हुए उन्होंने कहा कि वर्चस्ववादी और पुरुषवादी मानसिकता के कारण जो समस्याएं पैदा हुई हैं, उन्हें दूर करने का प्रयास विभिन्न प्रकार के साहित्यिक विमर्शों में हो रहा है। भिन्न आवाज़ो के उभरने से विखंडन की बात को नकारते हुए उन्होंने कहा कि दबे हुए स्वरों की आवाज़ से एक भारत मुकम्मल होगा। उन्होंने आदिवासियों के दुःख को पहचानने की बात की और कहा कि पूरी ताकत से आवाज़ उठाने पर ही उनकी बात सुनी जाएगी। विकास के मानकों पर भी उन्होंने विचार थे कि विकास का प्रतीक आर्थिक और भौतिक समृद्धि नहीं, बल्कि खुशहाली होना चाहिए।

डॉ. हरिराम मीणा बीज वक्तव्य देते हुए

इससे पूर्व यशवंतराव चव्हाण महाविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ.रमेश शिंदे ने अंबाजोगाई शहर का जो परिचय दिया, वह अच्छा लगा। क्योंकि उसमें विकिपीडिया से कुछ आगे की जानकारी मौजूद थी। अंबाजोगाई से हिन्दी लेखक रंगनाथ तिवारी,  प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास  बेगम समरू की रचना, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय तथा केंद्रीय हिन्दी संस्थान की स्थापना की सिफारिश करने वाले राजमल बोरा, मराठी के प्रथम कवि मुकुंदराज और उनकी प्रथम रचना विवेक सिंधु काव्य का सृजन, हत्तीखाना की गुफाएं, दासोपंत की समाधि, योगेश्वरी देवी का मंदिर जैसी बहुत सी विशेषताएं महाराष्ट्र के इस छोटे से शहर अंबाजोगाई से जुड़ी हैं। डॉ. शिंदे ने साहित्यिक संगोष्ठी समकालीन साहित्य के अस्मितामूलक विमर्श की भूमिका भी विस्तार से रखी।

यशवंतराव चव्हान महाविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ.रमेश शिंदे संगोष्ठी का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए।

अतिथि वक्ताओं ने समय के अनुसार अपनी बात संक्षेप में रखी और फिर भोजनावकाश घोषित किया गया। महाविद्यालय के पुस्तकालय परिसर में भोजन के लिए बुफे की बजाय बैठकर खाने खाने की उत्तम व्यवस्था थी, जहां पर शुद्ध और स्वादिष्ट शाकाहारी व्यंजनों से लुत्फअंदोज़ होने का अवसर मिला। महाराष्ट्र में परोसे जाने वाले भोजन में गरमा गरम चपाती और साग सब्जियों का मज़ा कुछ और ही होता है, जिसका यहां पूरा प्रबंध था।

सुधी दर्शक

भोजनावकाश से पहले का सत्र चूंकि देरी के कारण फिसलकर दूसरे सत्र में जा मिला था, इसलिए मंच का दृश्य सामान्य चर्चा सत्रों से कुछ अलग था। दो-दो विषय प्रवर्तक और दो-दो अध्यक्ष मंच की विद्वत्ता में चार चांद लगा रहे थे। विद्वानों ने अपने-अपने स्तर पर ज्ञान की वर्षा भी की। लेकिन सभागार में इस बरसात में भीगने वालों की कमी खलने लगी थी और खाली कुर्सियाँ अपने भरे न जाने की शिकायत कर रही थीं। खास बात यह कि अस्मितामूलक विमर्श की अवधारणा, वैचारिकी, पारस्परिकता के साथ-साथ उसकी दलित, आदिवासी, नारी साहित्य एवं अन्य परंपराओं पर प्रपत्र प्रस्तुत करने वालों की सीमित संख्या के साथ-साथ उनके लिए समय की कमी से साफ था कि वरिष्ठ विद्वानों के पास अपनी नयी पीढ़ी को सुनने, उनकी मेहनत, खामियाँ और खूबियाँ समझने के लिए समय नहीं हैं। ऐसा लगभग कई साहित्यिक संगोष्ठियों में होने लगा है, जहाँ प्रपत्र पढ़ने वालों को पहले दस, फिर आठ या पाँच और कभी-कभी तो कहा जाता है कि दो मिनट में अपनी बात रखें। जो शोधार्थी अपने विषय को समझने और उसे समझाने की तैयारियों में कई-कई सप्ताह का परिश्रम करते हैं, उनके साथ  इंसाफ नहीं हो पाता। इस बारे में संगोष्ठी के आयोजकों के साथ-साथ अपने भाषणों से तालियाँ बटोरने वाले वरिष्ठ विद्वानों को भी सोचना चाहिए। इस संयुक्त सत्र में डॉ. गजानन सवने, डॉ. द्वारका गित्ते, डॉ. मानित कुमार वाकले, डॉ. मुरलीधर लहाड़े एवं डॉ. बायज़ा कोकुले ने अपने प्रपत्र सुनाएं।

डॉ. भारती गोरे का सम्मान करते हुए डॉ. शिवदास शिरसाठ साथ में डॉ. सुषमा देवी, डॉ. पाशु एवं अन्य

विषय प्रवर्तक के रूप में डॉ. रमा नवले और डॉ. सुषमा देवी ने अपने अध्ययन और शोध के आधार पर अपनी बात रखी। अध्यक्ष के रूप में डॉ. रमेश यादव और डॉ. सुधाकर शेंडगे ने विषयप्रवर्तक की राय एवं प्रपत्र पढ़ने वालों पर टिप्पणी करने के साथ-साथ अपने ज्ञान का भी प्रदर्शन किया। हालाँकि डॉ. सतीश यादव ने अपनी टिप्पणी के दौरान फ्रांसिसी साहित्य में नारीवाद की प्रवर्तक समझी जाने वाली सिमोन द बोउआर की उम्र को कुछ ज्यादा ही बढ़ा दिया। अर्थात वे सिमोन को बीसवीं सदी से उन्नीसवीं सदी में ले गये। निश्चित रूप से ऐसी परंपरा से तालियाँ तो बटोरी जा सकती हैं, लेकिन कभी-कभी छवि को नुकसान पहुंचने का खतरा बना रहता है।

जैसा कि आम तौर पर होता है, संगोष्ठी जैसे-जैसे समापन की ओर बढ़ती है, श्रोताओं की संख्या घटने लगती है और समापन सत्र औपचारिकता भर रह जाता है। यहां भी ऐसा ही हुआ, लेकिन समापन सत्र की मुख्य वक्ता के रूप में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. भारती गोरे का भाषण शानदार रहा। वह यूँ भी हिंदी साहित्य के विमर्शों पर फायर ब्रांड की हैसियत रखती हैं। अपना वक्तव्य केवल भाषण न लगें, इसके लिए वह बीच-बीच में यह भी बताती रहीं कि जो कुछ वह कह रही हैं, इसका प्रमाण भी उनके पास मौजूद हैं। उन्होंने नारी, पुरुष, किन्नर, दलित, स्वर्ण सहित कई सारे विमर्शों के श्वेत-शाम को परिभाषित करने का प्रयास करते हुए अगली संगोष्ठी के लिए की प्रश्न श्रोताओं पर उछाल दिये।  

संगोष्ठी में भाग ले रहे विद्वान

संयोजक डॉ. रमेश शिंदे इस संगोष्ठी के लिए बधाई के पात्र इसलिए भी हैं कि उन्होंने अपने विद्वान मित्रों की कुछ ऐसी टीम बना रखी है, जो साहित्यिक आयोजनों में उनका सहयोग करने के लिए तन-मन-धन से तैयार रहती है।

समापन के बाद हमारा रुख सीधे अपने होटल की ओर था और वहाँ से बस स्टेशन। बस स्टेशन को देखकर साफ था कि परिंदों को अपने घोंसलों की ओर लौटने की जल्दी है। हालाँकि परों वाले परिंदे इस मामले में नियम के पक्के होते हैं और अनुशासन के पालन में भी उन पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। पैरों वाले परिंदों को अनुशासन से कम ही मतलब होता है। बस स्टॉप पर रुकी बसों में चढ़ने वाले यात्रियों को देखकर महसूस हुआ कि महाविद्यालय के सभागार में विभिन्न साहित्यिक विमर्शों पर हुई चर्चा का यहाँ कोई प्रभाव नहीं है। महिलाओं, बच्चों और बच्चों को गोद में लिये भीड़ से दबी जा रही माओं को दरकिनार करते हुए उन्हें पीछे धकेलते हुए कुछ पुरुष अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग बस में चढ़ने और सीटों पर कब्ज़ा जमाने में लगा रहे थे। इस दौरान उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि कितने लोगों के पैर उन्होंने कुचल दिये हैं। देश भर के कस्बों और छोटे शहरों के बस अड्डों से निकलने वाली आखिरी बस का हश्र शायद यही होता होगा। उसी तरह जिस तरह हरिशंकर परसाई का सदाचार का तावीज महीने की आखिरी तारीखों में अपना असर खो देता था। लोग इसके आदि भी हो जाते हैं। उसी तरह जिस तरह मुंबई लोकल का इस्तेमाल करने वाले यात्री अभ्यस्त हो गए हैं, भीड़ द्वारा धकेले, गाड़ी में चढ़ाएं और उतारे जाने के। हम इस दयार(क्षेत्र) में बिल्कुल नये थे, इसलिए ऑटो रिक्शा में 25 किलोमीटर की यात्रा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये और फिर उसी धक्कमपेल में अपने लिए बस में खड़े होने की थोड़ी सी जगह तलाश की और परली रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गये। यह सोचते हुए कि अपने अस्तित्व और अपनी पहचान के जो-जो विमर्श साहित्य में यह कहते हुए हो रहा है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है’ तो फिर क्या समाज भी कभी साहित्य के दर्पण में झांक लेता है? सोचा तो यह भी कि वंचितों के साहित्य और उनकी समस्याओं पर विमर्श पर एकाध संगोष्ठी शाम के समय बस अड्डे पर भी होनी चाहिए, ताकि वे सुन सकें कि विद्वान बने लोग उनकी हालत पर क्या चर्चा कर रहे हैं?

हम अपनी अस्मिता और अस्तित्व की क्या कहें, गालिब के शेर को दोहराते हुए कहीं भटक रहे हैं-

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता

डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता

  • एफ एम सलीम

(9 मार्च 2024)