दुआ वही है जो दिल से कभी निकलती है

स्नेह से भरपूर डॉ. रेखा शर्मा की यादों में बसे लोग….

अकसर लोग दुनिया के बारे में बेकार की चिंता करते रहते हैं कि यह पहले जैसी नहीं रही या फिर जैसी वो चाहते हैं, वैसी नहीं है, लेकिन यही क्या कम है कि जैसी वह है, बहुत अच्छी है। अपने आपको थोड़ा सा अच्छा बना लें तो ये दुनिया और सुंदर, बल्कि सुंदरतम हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि लोग ऐसा नहीं करते, करते हैं, लेकिन ऐसे लोग किस्मत से मिलते हैं और जिन्हें मिलते हैं, उनके आस पास खूबसूरत एहसास के साथ खुशगवार मौसम अंगड़ाइयाँ लेने लगता है। ऐसे मौसम में कुछ दिन तक सांस लेने का अवसर मुझे भी मिला है। लगभग एक दशक तक विवेक वर्धिनी कॉलेज के हिंदी विभाग में काम करने का अवसर, और उस व्यक्तित्व के साथ जिनकी विशेषताओं का जिक्र मैं ऊपर कर रहा था, उन्हें लोग डॉ. रेखा शर्मा के नाम से जानते हैं। जब मैंने हिंदी विभाग में कदम रखा था, रेखा जी विभागाध्यक्ष हुआ करती थीं और कुछ ही दिन बाद कॉलेज की प्राचार्य बनीं। हम सब स्टाफ भी उन्हें मैडम ही कहा करते थे, आज भी इसी नाम से संबोधित करते हैं। उनके सेवानिवृत्ति के कुछ दिन बाद भी मैंने भी विवेक वर्धिनी कॉलेज की सेवाओं से अपने को निवृत्त कर लिया था, लेकिन रेखा शर्माजी से मुलाकातें होती रहीं और फोन पर कुशल मंगल का सिलसिला भी जारी है। मेरे दोस्त डॉ. दत्ता साकोले ने जब मुझसे कहा कि रेखा जी पर लेख लिखना है, तो मैंने सोचा कि क्या लिखूँ। सोचा की उनका एक इंटरव्यू ही किया जाए। इत्तेफाक़ देखिए कि इस इंटरव्यू के लिए बरसों से बंद पड़ा विवेकवर्धिनी का हिंदी विभाग फिर से खोला गया और साफ सफाई के बाद हमें उसी टेबल पास बिछी कुर्सियों पर बैठे रहे, जहां पर एक दशक तक समय गुज़ारा था। रेखा जी के बारे में बस एक शब्द का उपयोग करना चाहूंगा कि उनके भीतर अपनों के लिए भरपूर स्नेह है। इसी स्नेह से उन्होंने अपने आस पास एक ऐसा संसार बसाया है, जहाँ प्यार और दुआओं की कोई कमी नहीं है। मैंने जब भी उन्हें देखा है, वह सम्मान ओढ़े एक भद्र महिला के रूप में ही देखा है। सभ्य, सुशिक्षित, कल्याणकारी, शभु मंगल कामनाओं की बरसात करते हुए। उर्दू के विख्यात शायर दाग़ देहलवी ने शायद उन्हीं के बारे में कहा है-

हज़ार बार जो माँगा करो तो क्या हासिल

दुआ वही है जो दिल से कभी निकलती है।

इंटरव्यू के दौरान यादों की पगडंडियों से गुज़रते हुए जहां जहाँ डॉ. रेखा शर्मा जी को देखा, मिला जा सकता है, देखिए, मिलिए।- एफ एम सलीम

(डॉ. घनश्याम और डॉ. होमनिधि शर्मा, डॉ. रेखा शर्मा और एफ एम सलीम)

इन दिनों आप क्या कर रही हैं?

अपने आपको वक़्त दे रही हूँ। इस बात की तलाश कर रही हूँ कि मैं कहाँ हूँ, जो शायद पहले जब मैं कॉलेज में हुआ करती थी, तो नहीं कर पा रही थी। उस समय मैं अपने को कॉलेज में लेक्चरर या प्राचार्य के रूप में देखा करती थी। कभी क्लास में विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए देखा करती थी, उस समय मैं कहाँ थी, मुझे नहीं पता, लेकिन आज मैं अपने को कभी किचन में तलाश कर लेती हूँ तो कभी दोस्तों रिश्तेदारों से मिलने घूमने-घामने के लिए कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में। पीएचडी के विद्यार्थी तीन चार हैं, उनकी जिम्मेदारी भी है, घर पर ही सही उनके लिए कुछ समय निकाल लेती हूँ। कोशिश जारी है कि उनका काम पूरा करा दूं। जहाँ तक घूमने-घामने की बात है, मैं समझती हूँ कि मेरे पाँव में चक्कर है, घूमना अच्छा लगता है। यह शौक मैं कॉलेज में रहते हुए पूरा नहीं पाती थी। हाल ही में बैंगलोर हो आयी। काफी घूम घाम लिया। कुछ रिश्तेदारों से मिलना हुआ। यह शौक मैं निश्चित रूप से पहले नहीं पूरा कर पाती थी, आज आज़ाद हूँ, जहाँ चाहूँ जा सकती हूँ। अपने स्वास्थ्य को भी समय देना है।

रिटायरमेंट के बाद मारिशस और दुबई भी हो आयी हूँ। यह दोनों यात्राएं साहित्य से जुड़ी थी। दुबई की यात्रा याद आ रही है। दुर्गेश नंदिनी तथा कुछ और दोस्त मिल गये थे। खूब घूमना फिरना भी हुआ और साहित्य पर भी अपनी रुचि के अनुसार चर्चा की। दुबई में न कोई संगोष्ठी थी और न कोई सम्मेलन, बस जो बात मन में आयी चर्चा करते गये और एक दूसरे को सुनते गये। जो कवि थे, उन्होंने कविताएं सुनाई।

हम मारिशस में हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये थे। बहुत भीड़ थी, एक दूसरे को तलाश करना कठिन था, हालांकि मैं वहाँ कुछ सुनाने या साहित्यिक चर्चा के उद्देश्य से नहीं गयी थी, बस इरादा इतना भर था कि कुछ दोस्त मिल जाएंगे और हिंदी पर लोगों से कुछ सुनने का अवसर मिलेगा। सूषमा स्वारज भी उस सम्मेलन में थी। दुनिया भर से बड़े-बड़े विद्वान आये थे। हैदराबाद की टीम में डॉ. विद्याधर भी थे। मारिशस घूमा और लोगों से यह जानने का प्रयास किया कि वे भारत से वहाँ किस तरह गये और वहां रहने बसने में उन्हें किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

(फिल्म डॉयरेक्टर मनीष गुप्ता, डॉ. रेखा निज़ामपेटकर, सुनीता शर्मा, डॉ. विद्याधर, डॉ. सूषमा,डॉ. संदीप और अन्य)

सेवानिवृत्ति के बाद अपने आपको कहाँ-कहाँ तलाश किया और क्या करते हुए पाया?

जिन दिनों में कॉलेज में पढ़ाती थी या प्राचार्य की जिम्मेदारी संभाल रही थी, उन दिनों मुझे अपने को देखने और अपने शौक पूरे करने का अवसर नहीं था। फिर जब उन सब बंधनों से आज़ाद हुई तो देखा कि एक बड़ी दुनिया है, जहां घूम-घाम कर कुछ अच्छे पल गुज़ारे जा सकते हैं। घूमना, सबसे मिलना मुझे बहुत पसंद है, लेकिन मैं उन्हें वक़्त नहीं दे पा रही थी। मेरे अपने भी हैं, और जिनसे मैं मिलना चाहती थी,  शिश करती रही कि उन्हें समय दूँ। निश्चित रूप से मैं उन सबसे मिलकर बहुत खुश थी। वह आनंद अन्य कार्यों में नहीं था। भाई, भाभी, दूसरे रिश्तदार, स्कूल के दोस्त सबसे मिलना हुआ। कॉलेज में व्यस्त थी तो उनमें से बहुत सारों के बारे में, कौन कहाँ है, क्या कर रहा है, यह भी नहीं जानती थी।

केंद्रीय विद्यायलय के वो पुराने छात्र, एक साथ मिलने का आनंद ही कुछ अलग था। दीपाली चक्रवर्ती, प्रवीण, केरल से मृदुला और बड़ौदा से अश्विनि शर्मा, पंजाब से अमृत आयी थी। सभी  मित्रों ने मिलकर योजना बनाई की हम ऊटी जाएंगे और फिर सभी ऊटी में थे। अधिकतर ने अपने बच्चों की शादियाँ कर दी थी। सब मिले तो ऐसा लगा कि हम केंद्रीय विद्यालय में वापस आ गये हैं,  जैसे बचपन लौट आया हो। खूब मस्ती की। छोटे बच्चों की तरह नाचे गये भी। सब ने अपने अनुभव साझा किये। उससे पूर्व हम कुछ साथी स्कूल भी गये थे। हालाँकि अपना स्कूल मुझे हिंदी दिवस और अन्य कार्यक्रमों में बुलाता रहता है। कुछ मेरे विद्यार्थी भी हैं, जो केंद्रीय विद्यालय में पढ़ा रहे हैं।

(विश्व हिंदी दिवस पर डॉ. रेखा शर्मा को सम्मानित करते हुए डॉ. गोपाल शर्मा, डॉ. गीता काटे, डॉ. अंसारी, डॉ. विद्याधर एवं अन्य )

कुछ दिलचस्प घटनाएं जो रिटायरमेंट के बाद आप के साथ हुई?

ऐसी घटनाएं बहुत हैं। हमारे साथ जो लोग स्कूल में पढ़ते थे, वो सब दुनिया के कोने कोने में बिखर गये थे। जिस तरह मुझे उनकी याद आ रही थी, उन्हें भी शायद मैं याद आ रही थी। बड़ौदा में रह रही अश्विनी शर्मा ने पता नहीं कहां से मेरा नंबर तलाश किया, एक दिन अचानक उसका फोन आया। मेरे लिए यह किसी आश्चर्य से कम न था, क्योंकि वह स्कूल में मेरी बहुत अच्छी दोस्त हुआ करती थी। तीस पैंतीस साल बाद उससे फोन पर बात हो रही थी। उसका पहला सवाल था, तुमने पहचाना कि नहीं पहचाना। मैंने कहा, बिल्कुल मैं पहचान गयी हूँ। इतने बरस बाद भी मुझे उसका चेहरा अच्छी तरह याद था। उसके बातचीत के अंदाज़ से ही मैंने उसे पहचान लिया था। मेरे मूँह से निकल गया, ‘तुम्हारी तीखी, तोते वाली नाक अभी भी मुझे याद है।’ उसे हम तोते वाली नाक कहकर चिढ़ाते थे। खूब बातचीत हुई। और फोन पर जब दो तीन बार बातचीत हुई तो उसने मुझे बड़ौदा बुलाया। मैंने उसी समय फ्लाईट के टिकट बुक किये और अगले हफ्ते मैं अहमदाबाद एयरपोर्ट पर थी। दोनों पति पत्नी मुझे लेने के लिए बड़ौदा से अहमदाबाद आये थे। वहाँ हमारा एक ही काम था, उसने जो फोन नंबर अपने दोस्तों के जमा किये थे, मेरे पास जो थे, सब को रात में देर गये तक फोन मिलाते और बातचीत करते रहते, दोस्तों की जानकारियाँ लेते रहते। सब अपनी अपनी मंज़िलों पर अलग अलग रास्तों पर निकल पड़े थे। कोई पायलट बन गया था, कोई आर्मी में है, किसी ने देश से बाहर अपनी दुनिया बसायी है। जो मिल गये थे, उनसे बातचीत जारी थी और जो नहीं मिले उनकी तलाश अब भी जारी है। मैंने बड़ौदा से आने के बाद भी यह सिलसिला जारी रखा। हाल ही की बात है। स्कूल के कई दोस्तों से मुलाक़ात हुई, बातचीत हो रही थी, एक दूसरे के बारे में पता कर रहे थे। स्कूल में एक बंगाली छात्र आशिम भी था। वह बहुत शरारती था। ग्यारहवीं, बारहवीं कक्षा की बात है, वह था तो साइंस का, लेकिन आर्ट्स के विद्यार्थियों के बीच ही अपना अधिकतर समय बिताता था। तांक झांक करना, साथियों को सताना, छेड़ना और दोस्ती करना उसकी आदत थी। जब उसके बारे में बात हुई तो अलग-अलग सूचनाएं मिलीं। किसी ने कुछ कहा किसी ने कुछ, किसी ने यहाँ तक कह दिया कि उसे ड्रग्स लेने की आदत थी और वह रहा नहीं। वह सबके साथ मिलता जुलता था, इसलिए सब उसे ढूंढ रहे थे। एक दिन हमारे दोस्त जयराज ने सरप्राइज देते हुए कहा कि मैंने उसे(आशिम को) ढूंढ लिया है। किसी को उस बात पर विश्वास नहीं हुआ। बताया गया कि वह कनाडा में है और वहां का मशहूर साइकैट्रिक डॉक्टर है। यह सही था कि उसे ड्रग्स लेने की आदत हो गयी थी, लेकिन बाद में उसने इस आदत से छुटकारा प्राप्त किया, लेकिन इस बीच उसकी याददाश्त को भी नुकसान पहुँचा। जयराज आशिम के संपर्क में थे। आशिम जब अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए कानपूर आया तो उसे हैदराबाद आने के लिए राजी किया और हम आठ दस लोग सिकंदराबाद क्लब में जमा हो गये। हमें विश्वास नहीं था कि आशिम आएगा ही, क्योंकि हममें से किसी के पास उसका फोन नंबर तक नहीं था। जयराज ने बाद में बताया कि फोन करने से वह पहचान पाएगा या नहीं, यह सोचकर उसका नंबर नहीं दिया। हब सब लोग जब आशिम से मिले तो बहुत खुश थे। वह हमें पहचानने की कोशिश कर रहा था, उसके लिए उसने ही एक तरीका निकाला कि सब अपने अपने बारे में कुछ बताएँगे, ताकि किसी का नाम याद न हो तो जान सकें। इस तरह एक बिछड़े हुए दोस्त से हमने फिर से मुलाक़ात की। मैं स्कूल में बहुत शरारती थी, सभी प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेती थी। भाषण दिया, गाने गये, नाटक किये, कई तरह के हंगामे किये। इसलिए कई विद्यार्थी मुझे आसानी से पहचान लेते थे।

आर्ट्स कॉलेज के पूर्व प्राचार्य प्रो. मोहन सिंह के साथ

लंबे अर्से बाद अपने पुराने सहपाठियों से मिलने के दौरान लगभग तीस पैंतीस साल पहले की स्थिति में पाने के आपके अनुभव कैसे रहे?  

मैं जीवन में कभी भी किसी बात से उदास नहीं रही, हमेशा हंसते हंसाते रहना मेरी प्रवृत्ति में शामिल रहा। ज़िंदादिल होने का नतीजा ही है कि मैं रिटायर तो हुई, लेकिन टायर्ड नहीं हुई। जीवन से पूरा आनंद लेने का प्रयास किया है। आर्मी माहौल से रही, मुझे विल पावर अपने पिताजी से मिली ही। अस्पताल के बिस्तर पर भी कभी निराश नहीं रही, जो होगा देखा जाएगा कि सोच के साथ आगे बढ़ती रही।

यह ठीक है कि हम हमेशा जिंदादिल रहकर जीवन का आनंद उठा सकते हैं, लेकिन शरीर की अपनी एक यात्रा होती है। बढ़ती उम्र के साथ यह दिल और दिमाग़ की सुनने में कितना बाधक रहता है?

यह अपनी सोच पर निर्भर करता है। आप सोचेंगे कि अब यह काम हमसे नहीं होगा तो नहीं होता, लेकिन मैं सोचती हूँ कि क्यों नहीं होता, बिल्कुल हो सकता है, तो होता है। मेरे साथ यही होता है। मैंने अपने आपको कभी बेचारी वाली स्थिति में नहीं पाया। कोई भी नया काम करने के लिए मैं एक पांव पर तैयार रहती हूँ। हाँ यदि स्वास्थ्य की कोई समस्या हो तो कुछ ब्रेक ज़रूर लग सकता है, लेकिन जैसे ही वह पड़ाव गुज़र जाए मैं अपने को तैयार पाती हूँ और चल पड़ती हूँ।

डॉ.- सूषमा देवी के साथ

बचपन और स्कूलिंग के बारे में कुछ यादें?

मेरा जन्म सिकंदराबाद मिलिटरी अस्पताल में हुआ। उन दिनों पिताजी की पोस्टिंग सिकंदराबाद में थी। बचपन में मैं आयोध्या और इलाहबाद में भी रही। पिताजी की पोस्टिंग तीन साल आयोध्या और तीन साल इलाहबाद में रही, तो वहाँ प्रथमिक स्कूल का समय बिताया। उत्तर प्रदेश में बचपन गुज़ारने के कारण पंजाबी परिवार से होने के बावजूद मेरी भाषा पर यूपी का प्रभाव अधिक है।

स्कूल में पढ़ने के दौरान क्या कोई योजना बनाई थी कि भविष्य में आगे चलकर क्या बनना है, क्या पढ़ना है वगैरह?

घर से ऐसा कोई दबाव नहीं था कि यही पढ़ना है या यही बनना है। दर असल मुझ पर मेरी दोस्त दीपाली का प्रभाव अधिक रहा। वह मुझसे एक साल सीनियर थी, लेकिन हम अच्छे दोस्त रहे। उसका बैगराउंड भी आर्मी से था। जब टेन प्लस टू हुआ तो उसने वुमेन्स कॉलेज में डिग्री में प्रवेश लिया। मैंने भी वुमेन्स कॉलेज कोठी में प्रवेश लिया। हमें तो यह भी नहीं मालूम था कि घर के आस-पास भी कोई डिग्री कॉलेज है। यह भी नहीं सोचा कि सिकंदराबाद से वुमेन्स कॉलेज कोठी कैसे आएंगे, क्योंकि स्कूल तो बिल्कुल घर के सामने था। फिर भी बसें बदलते हुए कोठी पहुँचने लगे। कई बार तो ओयू से होते हुए कोठी आने वाली बस में भी आये। आर्ट्स भी इसलिए लिया क्योंकि गणित में रुचि नहीं थी। 1977 से 1980 तक डिग्री पूरी करने के बाद हिंदी एम ए के लिए ओयू में प्रवेश लिया। वहाँ उन दिनों ज्ञान अस्थाना मैडम हुआ करती थी। वेंकटेश सर भी आ गये थे, चक्रवर्ती और खंडेलवालजी भी थे। यहाँ भी सांस्कृतिक गतिविधियों में खूब भाग लिया। एम फिल और पीएचड़ी भी यहीं से की।

विवेक वर्धिनी कॉलेज से जुड़ना कैसे हुआ?

एयरफोर्स केंद्रीय विद्यालय में छह महीने तक टीचर रही। डीएवी बेगमपेट में छह महीने तक पढ़ाया। इस बीच विवेक वर्धिनी कॉलेज का विज्ञापन देखा तो सोचा कि यह अच्छा कॉलेज होगा, हालांकि यह बात भी हुई कि यह मराठी लोगों का कॉलेज है और मेरा मराठी से कोई संबंध नहीं है तो भला मेरा चयन कैसे होगा। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि कोई महाराष्ट्रीयन जान पहचान हो तो बात की जाए। ऐसा भी नहीं हुआ, लेकिन फिर भी मैंने तय किया कि इंटरव्यू देने में क्या हर्ज है। इंटरव्यू लेने वालों में दवे जी भी थे। जो मुझे आता था, मैंने उसके जवाब दिये। कई बातें ऐसी भी थी, जिससे डिग्री को पढ़ाने का संबंध नहीं था, तो मैंने उलटे सवाल भी कर दिये कि यह तो डिग्री में नहीं है तो फिर सवाल का क्या मतलब। मैंने मजाक से यह भी कहा कि जो मुझे आता है, वह पूछ लीजिए। मुझसे यह भी पूछा गया कि इस कॉलेज में लड़कों की संख्या बहुत है, क्या आप संभाल पाएंगी? मैंने कहा कि मैंने आर्मी स्कूल और केंद्रीय विद्यालय में को-एजुकेशन में पढ़ाई की है, यह संभालना मुश्किल नहीं है। इंटरव्यू हुआ और कुछ दिन बाद कॉलेज का एक व्यक्ति अपाइंटमेंट लेटर लेकर साइकिल पर रामाकृष्णपुरम के अम्मुगुड़ा आया, जहां हमारा घर था। इस तरह से मैं विवेक वर्धिनी से जुड़ गयी।

बताया जाता है कि इस बीच आपको एक बैंक में भी अपाइंटमेंट मिल गया था?

ब्रहस्पति शर्मा पीजी में मेरे क्लासमेंट हुआ करते थे, जब बैंक में नौकरी के लिए नोटिफिकेशन आया तो उन्होंने बैंक के लिए एप्लाई करने के लिए कहा, हालाँकि इसमें मुझे रुचि नहीं थी। मना करने के बावजूद मेरा आवेदन भरा गया और इंटरव्यू के लिए लेटर भी आ गया। इंटरव्यू बैंगलोर में था। मुझे इस बात की खुशी नहीं थी कि इंटरव्यू के लिए लेटर आया है, बल्कि इसलिए कि मेरी दोस्त दीपाली बैंगलोर में थी। शादी के बाद वह बैंगलोर शिफ्ट हो गयी थी। वहाँ स्कूल में जॉब कर रही थी। इंटरव्यू हुआ, मैंने मनसे-बेमन से जो कुछ सूझा बता दिया। मुझे इच्छा भी नहीं थी और उम्मीद भी नहीं थी कि यह नौकरी लग जाएगी, मैं कुछ दिन दीपाली के साथ घूम घाम कर हैदराबाद चली आयी, लेकिन एक सप्ताह के बाद बैंक से अपाइंटमेंट का लेटर आ गया। गोवा में नियुक्ति मिल गयी थी। घरवालों और दोस्तों के बहुत समझाने पर मैं गोवा गई तो सही, लेकिन एक सप्ताह में वापस आ गयी। बाद में साथियों के समझाने पर कुछ दिन तक तबियत ठीक न होने का बहाना चलता रहा, लेकिन एक दिन मैंने तय किया कि इस्तीफा दे दूंगी और फिर बैंक की नौकरी छोड़ कर विवेक वर्धिनी में फिर से जाइन कर लिया। विवेक वर्धिनी में बारह साल तक पार्टटाइम के रूप में गुज़ारे, लेकिन यहाँ से जाने का मन नहीं हुई और फिर सेवा के स्थायित्व के बाद यहीं रच बस गयी।

(अमेरिका में हिंदी पढ़ाने वाले प्रो. जॉन काल्डवेल के साथ डॉ. रेखा शर्मा)

अपने विद्यार्थियों के बारे में कुछ बताइए?

विवेक वर्धिनी में पहले तो हिंदी विषय डिग्री तक ही पढ़ाया जाता था। 1990 में में हिंदी में एम ए शुरू हो गया। शुरू की बैच में काफी अच्छे विद्यार्थी आया करते थे। उनके साथ सामान्य क्लासरूम के अलावा कई प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियाँ और रचनात्मक लेखन के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता। हम लोग विद्यार्थियों के प्रवेश के लिए भी काफी मेहनत करते। कई तरह की गतिविधियाँ होती। शुरूआत में विद्यार्थी बहुत अच्छे हुआ करते थे, लेकिन बाद में पढ़ने और रुचि के स्तर पर भी कमी आती गयी। अधिकतर विद्यार्थियों को पढ़ने से अधिक डिग्री प्राप्त करनी है का विचार होता था। परिस्थितियाँ चाहे जैसी हों, बड़ी संख्या में यहां से विद्यार्थी निकले, कई विद्यार्थियों ने मेहनत और शौक से शिक्षा सहित विभिन्न क्षेत्रों में अपनी पहचान बनायी।

आप रंगमंचीय नाटकों का शौक भी रखती है। आपने रंगमंच पर अभिनय भी किया है, उन अनुभवों के बारे में कुछ बताइए?

नाटकों में मेरी रुचि स्कूल के ज़माने से रही। स्कूल में भी कई नाटक खेले और कॉलेज स्तर पर भी। हालांकि मेरा शोध का विषय उपन्यास रहा, लेकिन नाटक पढ़ने और उन्हें मंचित करने में मैं अपने को आगे पाती थी। उस्मानिया विश्वविद्यालय, रवींद्र भारती, हिंदी प्रचार सभा सहित कई स्थानों पर नाटक किये। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में ओयू को चार बार मैंने रिप्रेजेंट किया। तीन बार हैट्रिक करते हुए बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड प्राप्त किया। रमेश बख्शी का तीसरा हाथी, सागर सरहदी का तन्हाई सहित कई नाटक किये। उन गतिविधियों से बहुत कुछ सीखने को मिला, बल्कि कह सकती हूँ कि जीने को मिला। कई बार ऐसा होता था कि मैं किसी किरदार में खो जाती थी तो बाहर आना मुश्किल हो जाता था। साथी झंझोड़कर कहते कि हो गया नाटक हो गया, पर्दा गिर गया, अब उठो, बाहर निकलो।

किसी भी शिक्षक के जीवन में प्रचार्य का पद काफी महत्वपूर्ण होता है, आप वहां तक पहुँची, आपके अनुभव कैसे रहे?

पहले तो हिंदी विभाग अध्यक्ष के रूप में लंबे अरसे तक काम किया। यह कह सकते हैं कि प्राचार्य के रूप मे उन सेवाओं का विस्तार रहा। मैं कभी डंडा पकड़ने वाली प्राचार्य के रूप में नहीं रही, बल्कि टीम वर्क की भावना में विश्वास रखती थी और उसी भावना के साथ सब के साथ मिलकर काम किया। मैं स्टाफ के साथ थी, वे मेरे साथ थे। पाँच साल तक इस पद पर रही। कई तरह की प्रतियोगिताँएं आयोजित की। सभी विभागों में बड़े-बड़े आयोजन हुए। हिंदी विभाग ने भी समकालीन कविता पर एक बड़ा राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया था। साइंस फेयर भी बहुत अच्छा रहा। कुछ लोगों से मतभेद भी रहे, लेकिन किसी से कोई विवाद नहीं रहा। मैंने किसी मुद्दे को राजनीतिक रूप नहीं दिया।

इस पूरी यात्रा में पति और बच्चे कहां रहे, अर्थात उन्हें कितना समय दे पाती थी?

यह सही है कि प्रिंसिपल होने के समय अधिकतर रविवार को भी कॉलेज आना पड़ता था। विवेक वर्धिनी जाइन करने के बाद ही मेरा विवाह एक मराठी भाषी से हुआ। 1986 में मेरा विवाह हुआ था। हालाँकि डिग्री के बाद से ही मेरे लिए रिश्ते देखे जा रहे थे, लेकिन पीजी होने दो….एम फिल होने दो….कहते कहते मैं टालती रही और फिर पीएचडी होने के बाद मेरे लिए विवाह की घरवालों को कुछ ज्यादा ही चिंता रही। हमारे एक जान-पहचान के पंजाबी परिवार के माध्यम से मराठी ब्राह्मण परिवार के लड़के का रिश्ता आया। एक दूसरे को पसंद आया और रिश्ता हो गया। मेरी एक शर्त थी कि मुझे जॉब करनी है और दूसरी बात यह पूछ ली कि क्या मैं साड़ी के बजाय सलवार सूट पहन सकती हूँ,  उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया। महीने के अंदर एंगेजमेंट हो गयी और चट मंगनी और पट ब्याह। शादी के एक साल बाद ही दीक्षा का जन्म हुआ। उसके जन्म के बाद कुछ सालों के लिए मैंने नौकरी छोड़ दी थी, लेकिन जब वह चार साल की हुई तो फिर विवेकवर्धिनी जॉइन किया। चार साल बाद रोहित का जन्म हुआ। इन दिनों वह मेलबर्न, आस्ट्रेलिया में रह रहा है। दीक्षा भी आस्ट्रेलिया में रही लेकिन अब वह लौट आयी है, हमारे साथ ही रहती है। .

सारा जीवन खुशियों भरा रहा। मुझे किसी खराब बात पर कड़वाहट हुई भी है तो कुछ सेकंड के लिए और फिर सब कुछ ठीक हो जाता है। मैं किसी से देर तक नाराज़ नहीं होती। यह हाल घर में भी है। कभी अगर पति को भी गुस्सा आता है, तो मैं संभाल लेती हूँ। इसी तरह सब कुछ संभल जाता है।